प्रथम:
गुनाह (पाप) में सहायता करना हराम (निषिद्ध) है। जैसा कि अल्लाह तआ़ला ने फ़रमाया:
وَتَعَاوَنُوا عَلَى الْبِرِّ وَالتَّقْوَى وَلا تَعَاوَنُوا عَلَى الْإثْمِ وَالْعُدْوَانِ وَاتَّقُوا اللَّهَ إِنَّ اللَّهَ شَدِيدُ الْعِقَابِ
المائدة/2
"तथा नेकी और परहेज़गारी में एक-दूसरे की सहायता करो और पाप तथा अत्याचार में एक-दूसरे का सहयोग न करो। और अल्लाह से डरो। निःसंदेह अल्लाह कड़ी यातना देने वाला है।" (अल-माइदा: 2)
और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया:
"जो कोई भलाई की ओर बुलाएगा, उसे उतना ही सवाब मिलेगा जितना उस पर चलने वालों को, बिना उनके सवाब में कोई कमी किए। और जो कोई गुमराही की ओर बुलाएगा, उसे उतना ही गुनाह मिलेगा जितना उस पर चलने वालों को, बिना उनके गुनाह में कोई कमी किए।" (सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 4831)
इसी प्रकार अनेक प्रमाण हैं जो गुनाह में सहायता करने वाले के पापी होने को दर्शाते हैं, जैसे : सूद (रिबा) के अनुबंध को लिखने वाले और उसके गवाहों पर लानत की गई है। शराब ढोने वाले और निचोड़ने (तैयार करने) वाले पर लानत की गई है, इत्यादि।
लेकिन सभी प्रकार की सहायता निषिद्ध नहीं है। बल्कि, निषिद्ध केवल जानबूझकर की गई सहायता है, अर्थात् जिसमें सहायता करने वाले का उद्देश्य पाप में सहायता करना होता है, या प्रत्यक्ष और सीधी सहायता करना, जैसे शराब ले जाना या सूद का लेनदेन लिखना।
जहाँ तक दूरस्थ सहायता का प्रश्न है, जिसमें पाप में सहायता करने का इरादा न हो, तो यह हराम (निषिद्ध) नहीं है। यदि यह हराम हो जाए, तो लोगों के लिए बड़ी कठिनाई उत्पन्न होगी।
इसका उदाहरण : काफ़िरों के साथ लेन-देन, खरीद-बिक्री, उधार और गिरवी रखने की अनुमति है, जैसा कि प्रामाणिक सुन्नत से इसका पता चलता है। हालाँकि इसमें दूरस्थ सहायता भी शामिल है, यानी काफ़िर उस धन से लाभ उठाता है, उससे अपनी शक्ति बढ़ाता है, और उसे ब्याज वगैरह जैसी निषिद्ध चीज़ों में खर्च करता है। इसके बावजूद, शरीयत ने इस सहायता पर ध्यान नहीं दिया।
डॉ. वलीद अल-मनीसी (अमेरिका स्थित इस्लामी न्यायविदों की परिषद के सदस्य) कहते हैं :
"पाप और अत्याचार में सहायता के नियम का मुद्दा अमेरिकन इस्लामी न्यायविदों की परिषद के पाँचवें सत्र के दौरान, जो 1428 हिजरी में बहरीन में आयोजित हुआ था, सदस्यों के बीच व्यापक शोध और चर्चा का विषय था।
वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि पाप और अत्याचार में सहायता करने की चार श्रेणियाँ हैं :
- सीधी और जान-बूझकर : जैसे कोई व्यक्ति किसी को शराब पीने में सहायता करने के इरादे से उसे शराब देता है।
- सीधी लेकिन अनजाने में : इसमें उन निषिद्ध वस्तुओं की बिक्री शामिल है जिनका कोई अनुमेय उपयोग नहीं है, अगर उस व्यक्ति का इरादा उनके निषिद्ध उपयोग में सहायता करने का नहीं है।
- जान-बूझकर लेकिन अप्रत्यक्ष: जैसे कोई व्यक्ति किसी को शराब खरीदने के लिए एक दिरहम (पैसा) देता है, इसी में किसी की हत्या का कारण बनना भी शामिल है।
- न तो सीधी, न ही जान-बूझकर : जैसे कोई व्यक्ति किसी ऐसी चीज़ को बेचता है जिसका उपयोग अनुमेय या निषिद्ध उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है, लेकिन उसका इरादा उसके उपयोगकर्ताओं का निषिद्ध चीज़ में सहायता करना नहीं होता है। इसी तरह, कोई व्यक्ति किसी को एक दिरहम देता है, लेकिन इसलिए नहीं कि वह उससे शराब खरीदे। फिर यदि वह व्यक्ति उससे शराब खरीदता है और पीता है, तो उस व्यक्ति पर कोई पाप नहीं है जिसने उसे दिरहम दिया था, जब तक कि उसका हराम व निषिद्ध कार्य में उसकी मदद करने का इरादा न हो।"
इस चौथी श्रेणी में : मुश्रिकों तथा फासिक़ मुसलमानों से ख़रीद-फ़रोख़्त करना, उन्हें किराए पर संपत्ति देना और उन्हें दान देना भी शामिल है।
परिषद के फ़ैसले ने पहली तीन श्रेणियों को हराम और चौथी श्रेणी को जायज़ घोषित किया, जिसमें सहायता न प्रत्यक्ष रुप से और न जानबूझकर होती है।" उद्धरण समाप्त हुआ।
चौथी श्रेणी (जिसमें सहायता न प्रत्यक्ष और न ही जानबूझकर हो) से भी एक स्थिति अपवाद रखती है : जब यह ज्ञात हो या प्रबल अनुमान (ग़ालिब गुमान) हो कि वह व्यक्ति जिसकी सहायता की गई है, उस चीज़ का उपयोग पाप में करेगा। इसीलिए कई इस्लामी न्यायविदों ने ऐसे व्यक्ति को अंगूरों का बेचना हराम करार दिया है जो उन्हें निचोड़कर शराब बना लेगा, तथा फितने के समय हथियार बेचना निषेध किया है, जबकि अंगूर और हथियारों का इस्तेमाल जायज़ और हराम, दोनों तरह के कामों के लिए किया जाता है।
इसी वजह से शैख़ुल इस्लाम इब्ने तैमिय्यह रहिमहुल्लाह कहते हैं :
"हर वह कपड़ा, जिसके बारे में यह प्रबल अनुमान हो कि उसका उपयोग किसी पाप में किया जाएगा, तो उस कपड़े को उस व्यक्ति के लिए बेचना या सिलना जायज़ नहीं है जो उसे गुनाह या ज़ुल्म में इस्तेमाल करेगा... यही बात हर उस चीज़ पर भी लागू होती है जो मूल रूप से जायज़ है, लेकिन यह ज्ञात हो कि उसका इस्तेमाल पाप के लिए किया जाएगा।" ‘शरहुल उम्दा’ (4/386) से उद्धरण समाप्त हुआ।
आपके प्रश्न के संदर्भ में, इस कर्मचारी की प्रत्यक्ष या निकट सहायता उस स्थिति में प्रकट होती है यदि कोई व्यक्ति अपनी गाड़ी से उसे मैच स्थल तक पहुँचाता है या उसके लिए प्रवेश टिकट वगैरह ख़रीदता है।
जहाँ तक पार्किंग की अनुमति देने की बात है तो यह दूरस्थ सहायता है, क्योंकि उसके मैच में जाने और पाप करने के बीच कोई अनिवार्य संबंध नहीं है। हो सकता है कि वह मैच देखने न जाए, या हो सकता है कि वह मैच देखने जाए, लेकिन किसी पाप, जैसे गुप्तांगों को देखने या निषिद्ध मेल-जोल में न पड़े।
सैद्धांतिक रूप से "किसी पाप कार्य के लिए जाने" और "किसी जायज़ कार्य के लिए जाने जहाँ पाप भी हो सकता है" के बीच अंतर किया जाना चाहिए। जिस प्रकार कि फुक़हा ने उन दो व्यक्तियों के बीच अंतर किया है जो पाप करने के लिए घर किराए पर लेता है, जैसे कि शराबखाना बनाने के लिए, और जो अनुमेय निवास के लिए घर किराए पर लेता है और उसमें शराब पीता हैं। पहले वाले को मकान किराए पर देना हराम है, जबकि दूसरे वाले के लिए ऐसा नहीं है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष, निकट और दूरस्थ सहायता के बीच का अंतर इसके अनुप्रयोग और शाखाओं पर लागू करने में भिन्न हो सकता है। इसलिए फ़क़ीह (न्यायविद) को इस संबंध में प्रयास करना चाहिए और फुक़हा (न्यायविदों) ने समान मामलों में जो कुछ उल्लेख किया है उससे सहायता लेनी चाहिए।
इस चर्चे का निष्कर्ष यह निकला कि :
उस कर्मचारी को अपनी कार आपके निजी पार्किंग स्थान में खड़ी करने की अनुमति देने में, उस स्थान पर पाई जाने वाली बुराइयों, जैसे गुप्तांगों को देखने, या संगीत सुनने, या किसी भी अन्य बुरे कर्म जैसे पाप करने में कोई प्रत्यक्ष या निकट सहायता नहीं है। बल्कि यह तो उसकी सामान्य सहायता करना है, ठीक वैसे ही जैसे उसे भोजन, पेय या वस्त्र बेचकर सहायता करना है। यह इस आधार पर निषिद्ध नहीं है कि इससे उसे शक्ति मिलती है, स्वास्थ्य ठीक रहता है, या वह निषिद्ध कार्य करने में सक्षम होता है। क्योंकि यह एक अप्रत्यक्ष और दूर की सहायता है जो अनजाने में की गई है। इसीलिए शरीयत ने इसे ध्यान में नहीं रखा है और काफिर के साथ बिक्री और व्यावसायिक लेन-देन की अनुमति दी, जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है।
दूसरा :
अपने रिश्तेदार को अपने कंप्यूटर का उपयोग करके प्रवेश परीक्षा देने की अनुमति देने में कोई हर्ज नहीं है, भले ही उसने पढ़ाई के लिए ब्याज पर ऋण लिया हो। इसका कारण यह है कि पढ़ाई अपने आप में जायज़ है, और आप उसे पढ़ाई में मदद कर रहे हैं, न कि उस ब्याज वाले ऋण में।
लेकिन ऐसा करना हराम व नाजायज़ होगा कि वह आपके कंप्यूटर का इस्तेमाल उस हराम ऋण को लेने के लिए करे, क्योंकि इसमें (प्रत्यक्ष रूप से) पाप के काम में मदद करना पाया जाता है।
आपको पता होना चाहिए कि जो व्यक्ति ब्याज पर उधार लेता है, वह — अपने पाप के बावजूद — उधार लिए गए धन का मालिक होता है, और उसके लिए उसे खाने-पीने, आवास, पढ़ाई और अन्य उद्देश्यों के लिए उपयोग करना जायज़ है। इसलिए उसे उस पैसे से छुटकारा हासिल करने की कोई ज़रूरत नहीं है।
इसलिए, आप अपने इस रिश्तेदार या किसी और की पढ़ाई के जायज़ काम में मदद कर सकते हैं — इसमें कोई हर्ज नहीं है।
तीसरी बात :
यदि अच्छे ऋण (ब्याज रहित ऋण) में देरी से भुगतान करने पर जुर्माना लगाने की शर्त रखी जाए, तो वह हराम हो जाता है। इसका कारण यह है कि यह रिबा (ब्याज) को मान्यता देना है और वास्तविक रूप से सूदखोरी में पड़ने की संभावना है।
मक्का में मुस्लिम वर्ल्ड लीग की इस्लामी फ़िक़्ह परिषद ने अपने ग्यारहवें सत्र के प्रस्ताव 8 में कहा : "यदि ऋणदाता देनदार पर यह शर्त लगाता है या थोपता है कि यदि वह उनके बीच निर्दिष्ट तिथि पर भुगतान करने में देरी करता है, तो वह उसे एक विशिष्ट वित्तीय दंड या एक विशिष्ट प्रतिशत के रूप में धनराशि का भुगतान करेगा, तो यह एक अवैध शर्त या अधिरोपण है, और इसे पूरा करना आवश्यक नहीं है, बल्कि यह जायज़ (ही) नहीं है, चाहे शर्त लगाने वाला बैंक हो या कोई और, क्योंकि यह तो वही अज्ञानता के युग का ब्याज है, जिसे कुरआन ने हराम ठहराया है।” उद्धरण समाप्त हुआ।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।