इस्लामी शरीयत में सभी मामलों के समाधान का समावेश

प्रश्न: 301678

क्या इस्लामी शरीय़त में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक — सभी प्रकार की समस्याओं के विस्तृत समाधान मौजूद हैं? यदि कोई ऐसी नई समस्या उत्पन्न हो जो शरीयत में स्पष्ट रूप से उल्लिखित न हो, तो उसका समाधान कहाँ से लिया जाएगा?

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा एवं गुणगान केवल अल्लाह के लिए योग्य है, तथा दुरूद व सलाम की वर्षा हो अल्लाह के रसूल पर। इसके बाद :

पहली बात :

अल्लाह तआला ने अपने बंदों के लिए जो शरीयत (धर्म-व्यवस्था) उतारी है, उसमें वह सब कुछ शामिल है जिसकी लोगों को अपनी आस्था, उपासना, लेन-देन और सामाजिक मामलों में आवश्यकता होती है। क्योंकि यह अंतिम शरीयत है, जिसके साथ अंतिम नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को संपूर्ण मानव जाति के लिए भेजा गया है। अतः उनके बाद कोई नबी नहीं आएगा और न ही उनकी शरीयत के बाद कोई अन्य शरीयत होगी। यहाँ तक कि जब ईसा अलैहिस्सलाम अंतिम समय में धरती पर उतरेंगे, तो वे भी इसी शरीयत के अनुसार फ़ैसला करेंगे।

जो व्यक्ति कुरआन पर मनन-चिंतन करेगा, सुन्नत पर विचार करेगा, तथा फिक्ह (इस्लामी धर्मशास्त्र) और नवाज़िल (नए उत्पन्न होने वाले मुद्दों) पर लिखी गई पुस्तकों पर गौर करेगा, वह इस बात को निश्चित रूप से जान लेगा।

शरीयत के अहकाम (नियम) दो प्रकार के हैं :

(1) ऐसे नियम जो क़ुरआन और सुन्नत में स्पष्ट रूप से बताए गए हैं, जिनमें शरीयत के नियमों के मूल सिद्धांत और वे विवरण शामिल हैं जिनकी ज़्यादातर लोगों को ज़रूरत होती है।

(2) ऐसे नियम जो स्पष्ट रूप से उल्लिखित नहीं हैं, लेकिन एक धर्मशास्त्री के लिए अन्य शरई प्रमाणों के माध्यम से उनके हुक्म को जानना संभव है, जैसे कि सहाबा के फैसले (आसार), या स्पष्ट नियमों पर क़ियास, या इस्तिसहाब (पूर्व स्थिति का जारी रहना), या मसालेह मुरसला (सार्वजनिक हित), या सद्दे-ज़राए (बुराई के साधनों को रोकना)।

इसीलिए अल्लाह तआला ने फ़रमाया :

أَفَغَيْرَ اللَّهِ أَبْتَغِي حَكَمًا وَهُوَ الَّذِي أَنْزَلَ إِلَيْكُمُ الْكِتَابَ مُفَصَّلاً وَالَّذِينَ آتَيْنَاهُمُ الْكِتَابَ يَعْلَمُونَ أَنَّهُ مُنَزَّلٌ مِنْ رَبِّكَ بِالْحَقِّ فَلَا تَكُونَنَّ مِنَ الْمُمْتَرِينَ

[الأنعام: 114].

"तो क्या मैं अल्लाह के सिवा कोई और न्यायकर्ता तलाश करूँ, हालाँकि उसी ने तुम्हारी ओर यह विस्तारपूर्ण पुस्तक उतारी है? तथा जिन लोगों को हमने पुस्तक प्रदान की है, वे जानते हैं कि निश्चय यह आपके पालनहार की ओर से सत्य के साथ अवतरित की गई है। अतः आप हरगिज़ संदेह करने वालों में से न हों।" (अल-अनआम : 114)

एक अन्य स्थान पर फ़रमाया :

وَنَزَّلْنَا عَلَيْكَ الْكِتَابَ تِبْيَانًا لِكُلِّ شَيْءٍ

النحل/ 89.

"और हमने आपपर यह पुस्तक (क़ुरआन) अवतरित की, जो प्रत्येक विषय का स्पष्टीकरण है।" (अन-नह्ल : 89)

तथा हदीस में आया है : "ऐसा कोई भी कार्य नहीं जो तुम्हें जन्नत के करीब ले जाता हो, मगर मैंने तुम्हें उसका हुक्म दिया है। और ऐसा कोई भी कार्य नहीं जो तुम्हें जहन्नम के करीब ले जाता हो, मगर मैंने तुम्हें उससे रोका है। अतः तुममें से कोई भी अपनी रोज़ी में देरी महसूस न करे। क्योंकि जिब्रील ने मेरे दिल में यह बात डाली है कि तुममें से कोई भी व्यक्ति तब तक दुनिया से नहीं जाएगा जब तक कि उसे उसकी पूरी रोज़ी न मिल जाए। इसलिए, ऐ लोगो! अल्लाह से डरो और रोज़ी की तलाश संयम से (बिना किसी अति या उपेक्षा के) करो। यदि तुममें से किसी को अपनी रोज़ी में देरी महसूस हो, तो उसे अल्लाह की अवज्ञा करके उसकी तलाश नहीं करनी चाहिए; क्योंकि अल्लाह का अनुग्रह उसकी अवज्ञा करके प्राप्त नहीं किया जा सकता।"

इसे इब्ने अबी शैबा ने "अल-मुसन्नफ़" (34332) में और हाकिम ने "अल-मुस्तदरक" (2/5) में बयान किया है और अल्बानी ने इसे "सहीह अत्-तरगीब वत-तरहीब" (1700) में सहीह क़रार दिया है।

शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह फरमाते हैं :

शरीयत के अहकाम दो प्रकार के हैं :

  1. स्पष्ट रूप से उल्लिखित अहकाम: ये वे अहकाम हैं जिन्हें शरीयत ने निर्धारित रूप से स्पष्ट कर दिया है, जैसे कि अल्लाह तआला ने फ़रमाया :  حُرِّمَتْ عَلَيْكُمُ الْمَيْتَةُ وَالدَّمُ وَلَحْمُ الْخِنْزِيرِ وَمَا أُهِلَّ لِغَيْرِ اللَّهِ بِهِ "तुमपर ह़राम किया गया है मुर्दार, (बहता हुआ) रक्त, सूअर का मांस और वह जिसपर (ज़बह करते समय) अल्लाह के अलावा का नाम पुकारा जाए।" (अल-माइदा : 3) इसी प्रकार, अल्लाह तआला ने फ़रमाया :  وَأُحِلَّ لَكُمْ مَا وَرَاءَ ذَلِكُمْ  "और इनके  सिवा अन्य स्त्रियाँ तुम्हारे लिए हलाल कर दी गई हैं।" (अन-निसा : 24) इस प्रकार के उदाहरण शरीयत में बहुत अधिक हैं।
  2. वे अहकाम जो निर्धारित रूप से स्पष्ट नहीं किए गए हैं, लेकिन शरीयत के सामान्य नियमों और व्यापक प्रमाणों में उनका उल्लेख होता हैं। क्योंकि इस्लामी शरीयत व्यापक और हर चीज़ को व्याप्त है, और यह संभव नहीं है कि हर मस्अले को निर्धारित रूप से स्पष्ट किया जाए। क्योंकि इसके लिए इतनी अधिक किताबों की आवश्यकता होगी कि उन्हें न ऊँट उठा सकते हैं और न ही गाड़ियाँ।

लेकिन शरीयत में कुछ सामान्य नियम हैं, जिनसे अल्लाह तआला अपने बंदों में से जिसे चाहता है सम्मानित करता है। अतः वे नए उत्पन्न होने वाले मुद्दों को (क़ियास के माध्यम से) इन सामान्य नियमों के अहकाम से मिला सकते हैं। उदाहरण के तौर पर : “न हानि उठाना जायज़ है और न ही एक-दूसरे को हानि पहुँचाना।”

यह एक हदीस है, यद्यपि इसकी प्रामाणिकता संदिग्ध (विचाराधीन) है, लेकिन शरीयत के सामान्य नियम इसका समर्थन करते हैं। इस नियम के अंतर्गत हजारों ऐसे मामले जिनमें नुक़सान पाया जाता है और हज़ारों ऐसे मामले जिनके अंदर एक-दूसरे को नुक़सान पहुँचाना पाया जाता है शामिल किए जा सकते है जबकि उनका स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है।

एक व्यावहारिक उदाहरण : अमीरुल मोमिनीन उमर बिन खत्ताब रज़ियल्लाहु अन्हु के दौर में दो व्यक्तियों के बीच विवाद हुआ। उनमें से एक व्यक्ति के पास दो खेत थे और उन दोनों के बीच दूसरे व्यक्ति की ज़मीन थी। पहले व्यक्ति ने अपनी दूसरी ज़मीन तक पानी ले जाने के लिए पड़ोसी की ज़मीन से पानी बहाने की अनुमति माँगी, लेकिन दूसरे व्यक्ति ने इनकार कर दिया और कहा : "मैं अपनी ज़मीन पर पानी नहीं बहने दूँगा।" मामला जब अमीरुल मोमिनीन उमर बिन खत्ताब रज़ियल्लाहु अन्हु के पास पहुँचा, तो आपने आदेश दिया कि ज़बरदस्ती उसके खेत से पानी बहाया जाए और फरमाया : "मैं यह पानी तेरे पेट (या कहा : तेरी पीठ) पर से भी बहा दूँगा!" क्योंकि उस पड़ोसी ने केवल अपने साथी को नुकसान पहुँचाने की नीयत से मना किया था, जबकि वह स्वयं भी इस पानी का उपयोग कर सकता था और इससे उसकी फसल को लाभ पहुँच सकता था। इस प्रकार, यह निर्णय वास्तव में दोनों के लिए लाभदायक था।” "लिक़ा अल-बाब अल-मफ्तूह" (18/122) से उद्धरण समाप्त हुआ।

जो आयतें हमने उल्लेख की हैं, उनसे यह समझा जाता है कि अकेले कुरआन ही में हर वह बात स्पष्ट रूप से वर्णित है जिसकी लोगों को आवश्यकता होती है। इस तथ्य की विद्वानों के निकट दो व्याख्याएँ हैं :

पहली व्याख्या :

कुरआन में इस बात का वर्णन है कि सुन्नत, इज्माअ़ (विद्वानों की सर्वसम्मति) और क़ियास शरई प्रमाण हैं। इसलिए, जो कुछ भी इन प्रमाणों से सिद्ध होता है, उसके बारे में यह कहना सही है कि वह कुरआन से प्रमाणित है।

दूसरी व्याख्या :

कुरआन स्वयं किसी न किसी रूप में सभी आवश्यक बातों को स्पष्ट करता है, भले ही कुछ मामलों में बराअते-असली (मूल निर्दोषता) पर बरकरार रखकर हो।

हालाँकि, यहाँ हमारा उद्देश्य यह सिद्ध करना नहीं है कि कुरआन अकेले सभी अहकाम को समाहित करता है, बल्कि यह स्पष्ट करना है कि शरीयत अपने विश्वसनीय स्रोतों (कुरआन, सुन्नत, इज्मा, और क़ियास) के साथ सभी अहकाम को समाहित करती है।

फिर भी, ज्ञान और लाभ के लिए, हम उस चीज़ का उल्लेख कर रहे हैं जो फखरुद्दीन राज़ी रहिमहुल्लाह ने दूसरी व्याख्या के बारे में प्रस्तुत किया है। जबकि उन्होंने पहले यह उल्लेख किया है कि पहली व्याख्या जमहूर फुक़हा (इस्लामी शरीयत के विद्वानों की बहुमत) का मत है।

राज़ी रहिमहुल्लाह फरमाते हैं :

"जहाँ तक इस विचार का संबंध है कि यह किताब (कुरआन) मूल और शाखाओं से संबंधित सभी ज्ञानों को समाहित नहीं करती।

तो हम कहते हैं : जहाँ तक मूल सिद्धांतों के ज्ञान का संबंध है, तो वे इसमें पूर्ण रूप से मौजूद है; क्योंकि मूल (असली) प्रमाण इसमें अत्यंत सुस्पष्ट रूप से वर्णित हैं। जहाँ तक विचारधाराओं (फिक़्ही मतों) के विभिन्न दृष्टिकोणों और उनके कथनों के विवरण की बात है, तो उनकी कोई आवश्यकता नहीं है।

जहाँ तक फुरूई मसाइल के ज्ञान के विवरण की बात है, तो इस बारे में विद्वानों के दो कथन हैं :

पहला कथन :

इस कथन के पक्षधर विद्वानों का कहना है कि कुरआन यह प्रमाणित करता है कि इज्मा’ (विद्वानों की सर्वसम्मति), खबरे-वाहिद (एकल-स्रोत हदीस), और क़ियास शरीयत में हुज्जत (प्रमाण) हैं। इसलिए, जो भी इन तीन उसूलों (आधारों) में से किसी एक से प्रमाणित होता है, वह वास्तव में कुरआन में मौजूद माना जाएगा।

वाहिदी रहिमहुल्लाह ने इस अर्थ के निम्नलिखित तीन उदाहरण उल्लेख किए हैं :

पहला उदाहरण :

यह वर्णित है कि इब्ने मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु कहा करते थे: "मैं उन पर ला’नत क्यों न करूँ जिन पर अल्लाह ने अपनी किताब में ला’नत की है।" यहाँ उनका अभिप्राय वे महिलाएँ थीं जो गुदना गोदने वाली, गुदना गोदवाने वाली, बाल जोड़ने वाली और बाल जोड़वाने वाली हैं।

तथा बयान किया जाता है कि एक बार एक महिला ने पूरा कुरआन पढ़ा और फिर इब्ने मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु के पास आकर कहा : "ऐ इब्ने उम्मे अब्द! मैंने कल पूरे कुरआन को शुरू से अंत तक पढ़ा, लेकिन मुझे उसमें कहीं भी गुदना गोदने वाली और गुदना गोदवाने वाली महिलाओं पर लानत का कोई उल्लेख नहीं मिला?" उन्होंने उत्तर दिया : "यदि तुमने उसे (सही ढंग से) पढ़ा होता, तो अवश्य पाया होता कि अल्लाह तआला ने फरमाया है :  وما آتاكم الرسول فخذوه "और रसूल तुम्हें जो कुछ दें, उसे ले लो..." (अल-हश्र : 7) और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हमें जो कुछ दिया है उसमें से उनका यह फरमान है : "अल्लाह ने गुदना गोदने वाली और गुदना गोदवाने वाली महिलाओं पर लानत भेजी है।"

मैं (राज़ी) कहता हूँ : कुरआन में यह बात और स्पष्ट रूप में मौजूद है, जैसा कि अल्लाह तआला ने सूरतुन-निसा में फ़रमाया :  وإن يدعون إلا شيطانا مريدا * لعنه الله  "और वास्तव में ये केवल उद्दंड शैतान को पुकारते हैं, जिसे अल्लाह ने शापित किया है।" (अन-निसा : 117-118) यहाँ अल्लाह ने शैतान पर ला’नत भेजी, फिर उसके बाद अल्लाह तआला ने (शैतान की लानत के कुछ कारणों का उल्लेख करते हुए) उसके बुरे कार्यों का उल्लेख किया है, जिनमें से एक उसका यह कथन है :  ولآمرنهم فليغيرن خلق الله  "और मैं उन्हें निश्चय ही आदेश दूँगा, तो वे अवश्य अल्लाह की रचना में परिवर्तन करेंगे।" (अन-निसा : 119) इस आयत का स्पष्ट अर्थ यह दर्शाता है कि अल्लाह की बनाई हुई प्राकृतिक रचना में बदलाव करना (जैसे गुदना गोदना, कृत्रिम रूप से बाल जोड़ना, इत्यादि) शापित होने का कारण बनता है।

दूसरा उदाहरण :

यह उल्लेख किया गया है कि इमाम शाफ़ेई रहिमहुल्लाह मस्जिदे-हरम में बैठे थे। तो उन्होंने कहा : "मुझसे जिस चीज़ के बारे में भी पूछोगे, मैं तुम्हें उसका उत्तर अल्लाह की किताब (क़ुरआन) से दूँगा।" इस पर एक व्यक्ति ने प्रश्न किया : "आप क्या कहते हैं उस व्यक्ति के बारे में जो एहराम (हज्ज या उमरा की अवस्था) में होते हुए किसी ततैया को मार दे?" इमाम शाफ़ेई रहिमहुल्लाह ने उत्तर दिया : "उस पर कुछ भी आवश्यक नहीं है।" फिर उस व्यक्ति ने पूछा : "यह बात अल्लाह की किताब (कुरआन) में कहाँ है?" इमाम शाफ़ेई ने उत्तर दिया : अल्लाह ने फरमाया :  وما آتاكم الرسول فخذوه "और रसूल तुम्हें जो कुछ दें, उसे ले लो..." (अल-हश्र: 7) फिर इसके बाद उन्होंने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तक इस्नाद का उल्लेख किया कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "तुम्हारे ऊपर अनिवार्य है कि तुम मेरी सुन्नत और मेरे बाद के पुनीत खलीफाओं की सुन्नत को अपनाओ।" फिर उन्होंने सनद के साथ उमर रज़ियल्लाहु अन्हु का कथन उल्लेख किया कि उन्होंने फरमाया : "एहराम की स्थिति में रहने वाला व्यक्ति ततैया को मार सकता है।"

वाहिदी रहिमहुल्लाह कहते हैं : इमाम शाफ़ेई ने तीन स्तरों की तर्क-व्याख्या के माध्यम से निष्कर्ष निकालकर अपना उत्तर अल्लाह की किताब से दिया है।

मैं (राज़ी) कहता हूँ : "यहाँ एक और तरीका है, जो इससे भी अधिक निकट है। वह यह कि मुसलमानों की संपत्ति के बारे में मूल सिद्धांत यह है कि वह सुरक्षित  है। अल्लाह तआला ने फरमाया :  لها ما كسبت وعليها ما اكتسبت  "उसी के लिए है जो उसने (नेकी) कमाई, और उसी पर है जो उसने (पाप) कमाया।" (अल-बक़रह : 286) एक और स्थान पर फरमाया :  ولا يسئلكم أموالكم "और वह तुमसे तुम्हारा (सारा) धन नहीं माँगेगा।" (मुहम्मद : 36) और फरमाया :  لا تأكلوا أموالكم بينكم بالباطل إلا أن تكون تجارة عن تراض منكم "आपस में एक-दूसरे का धन अवैध रूप से न खाओ, सिवाय इसके कि वह तुम्हारी आपसी सहमति से कोई व्यापार हो।" (अन-निसा : 29) इन आयतों से यह सिद्ध होता है कि लोगों की संपत्ति को अनुचित (नाजायज़) रूप से खाने से मना किया गया है, सिवाय व्यापार के माध्यम से। इसलिए, जब व्यापार मौजूद न हो, तो मूल स्थिति यही रहेगी कि दूसरे का माल लेना हराम (निषिद्ध) है। इन सामान्य आयतों से यह सिद्ध होता है कि उस व्यक्ति पर कोई चीज़ (दंड) अनिवार्य नहीं है जो एहराम की अवस्था में किसी ततैया को मार डाले, क्योंकि इन आयतों के सामान्य सिद्धांत पर बने रहना एक ही स्तर के हुक्म को अनिवार्य करता है — अर्थात, जहाँ कोई विशेष आदेश न हो, वहाँ मूल सिद्धांत से ही निर्णय लिया जाएगा।

तीसरा उदाहरण:

वाहिदी रहिमहुल्लाह कहते हैं: एक मज़दूर व्यभिचारी (ज़िना करने वाले) के बारे में वर्णित हदीस में आता है कि उसके पिता ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से कहा : "आप हमारे बीच अल्लाह की किताब के अनुसार फैसला करें।" तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "उस ज़ात की क़सम! जिसके हाथ में मेरी जान है, मैं निश्चित रूप से तुम्हारे बीच अल्लाह की किताब के अनुसार फैसला करूँगा।" फिर आपने फैसला सुनाया कि : उस मज़दूर को कोड़े मारे जाएँ और देश से निर्वासित किया जाए।

और यदि स्त्री ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया हो, तो उसे रज्म (पत्थर मारकर मृत्यु) की सज़ा दी जाए।

वाहिदी रहिमहुल्लाह कहते हैं :

"हालाँकि, क़ुरआन की किसी आयत में कोड़ों और निर्वासन का उल्लेख नहीं है। इससे यह स्पष्ट होता है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम द्वारा दिया गया हर फैसला दरअसल अल्लाह की किताब का ही फैसला है।”

मैं (राज़ी) कहता हूँ : "यह उदाहरण बिल्कुल सही है, क्योंकि अल्लाह तआला ने फरमाया है :  لتبين للناس ما نزل إليهم "ताकि आप लोगों के सामने खोल-खोलकर बयान कर दें, जो कुछ उनकी ओर उतारा गया है।" (अन्-नहल: 44)

अतः जो कुछ भी रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने स्पष्ट किया, वह इस आयत के अंतर्गत आता है।

इस प्रकार, इन उदाहरणों से यह सिद्ध हुआ कि जब कुरआन ने यह प्रमाणित किया कि इज्मा’ (विद्वानों की सर्वसम्मति) हुज्जत (प्रमाण) है, ख़बरे-वाहिद हुज्जत (प्रमाण) है, और क़ियास हुज्जत (प्रमाण) है, तो इन तीन तरीकों में से किसी भी तरीक़े से प्रमाणित होने वाला हर हुक्म वास्तव में क़ुरआन से ही साबित माना जाएगा। इस आधार पर, अल्लाह तआ़ला का यह कथन बिल्कुल सही साबित होता है :  ما فرطنا في الكتاب من شيء "हमने पुस्तक (कुरआन) में किसी चीज़ की कमी नहीं छोड़ी।" (अल-अनआ़म : 38)

यही इस कथन की व्याख्या है, और अधिकांश फुक़हा ने इसी मत के समर्थन की तरफ गए हैं।...

दूसरा कथन :

इस आयत की व्याख्या में दूसरा कथन उन लोगों का कथन है जिनका यह कहना है कि : कुरआन सभी अहकाम (नियमों) को पूर्ण रूप से स्पष्ट करने वाला है।

इसकी व्याख्या यह है कि मूल सिद्धांत यह है कि प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार के दायित्वों से भारमुक्त है, और किसी व्यक्ति को किसी दायित्व के लिए बाध्य करने के लिए एक अलग प्रमाण का होना आवश्यक है। यह संभव नहीं कि हर उस मामले का विशेष रूप से उल्लेख किया जाए, जो किसी दायित्व के अंतर्गत नहीं आता, क्योंकि ऐसे मामलों की संख्या जिनके बारे में कोई दायित्व वर्णित नही है असीमित (अनंत) है। और जिसका कोई अंत ही न हो उसका स्पष्ट वर्णन करना असंभव है, बल्कि स्पष्ट रूप से केवल सीमित विषयों का ही वर्णन किया जा सकता है।

उदाहरण के लिए, अल्लाह तआ़ला ने अपने बंदों पर एक हज़ार अहकाम (नियम) अनिवार्य किए और कुरआन में उनका उल्लेख किया, तथा मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को उन हज़ार अहकाम को लोगों तक पहुँचाने का आदेश दिया। फिर इसके बाद अल्लाह ने फ़रमाया :  ما فرطنا في الكتاب من شيء "हमने पुस्तक (कुरआन) में किसी चीज़ की कमी नहीं छोड़ी।" (अल-अनआम : 38) तो इसका अर्थ यह होगा कि अल्लाह ने अपने बंदों पर उन हज़ार आदेशों के अतिरिक्त कोई और दायित्व नहीं रखा। फिर इस आयत की पुष्टि अपने इस फरमान से की : اليوم أكملت لكم دينكم  "आज मैंने तुम्हारे लिए तुम्हारा धर्म परिपूर्ण कर दिया।" (अल-माइदा : 3) और अपने इस फरमान से भी :  ولا رطب ولا يابس إلا في كتاب مبين "और न कोई गीली चीज़ है और न कोई सूखी चीज़, परंतु वह एक स्पष्ट पुस्तक में (अंकित) है।" (अल-अनाम : 59)

यह इन लोगों के मत की व्याख्या है (जो यह मानते हैं कि कुरआन अपने आप में सभी नियमों को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है।) तथा इस विषय का व्यापक और समग्र अध्ययन उसूले-फ़िक़्ह (इस्लामी विधिशास्त्र) की किताबों में किया जाता है। और अल्लाह ही सबसे अधिक जानने वाला है।” “तफ़सीर अर-राज़ी” (12/527-528) से उद्धरण समाप्त हुआ।

चेतावनी :

अल्लाह तआला के फरमान :  مَا فَرَّطْنَا فِي الْكِتَابِ مِنْ شَيْءٍ "हमने पुस्तक में किसी चीज़ की कमी नहीं छोड़ी।" (अल-अनआम : 38) के बारे में सही बात यह है कि यहाँ "पुस्तक" से तात्पर्य "लौहे़-मह़फूज़" (संरक्षित पट्टिका) है, जिसमें अल्लाह ने समस्त सृष्टि की तक़दीरें लिखी हैं। यही व्याख्या अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से इस आयत की तफ़सीर में वर्णित है।

लेकिन यहाँ पर इस आयत के बजाय, अल्लाह तआला के इस फरमान से प्रमाण ग्रहण करना पर्याप्त है :  وَنَزَّلْنَا عَلَيْكَ الْكِتَابَ تِبْيَانًا لِكُلِّ شَيْءٍ "और हमने तुम्हारे ऊपर इस किताब (क़ुरआन) को उतारा, जो हर चीज़ को स्पष्ट करने वाली है।" (अन्-नह्ल : 89)

विस्तृत जानकारी के लिए देखें : "तफसीर इब्ने जरीर" (9/234), "तफसीर इब्ने कसीर" (3/253), "तफसीर अस-सा’दी" (पृष्ठ: 255)।

दूसरी बात :

यदि कोई नया मामला सामने आता है, जिसका स्पष्ट उल्लेख अल्लाह की किताब (क़ुरआन) या उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सुन्नत में नहीं मिलता — जैसे कि कुछ चिकित्सा, आर्थिक और इसी तरह के मामले, उदाहरण के लिए, कृत्रिम गर्भाधान, आनुवंशिक इंजीनियरिंग और क्रिप्टोकरेंसी ट्रेडिंग जैसे मुद्दे — तो ऐसी स्थिति में इस्लामिक विद्वान इन मामलों का शरई हुक्म तय करने के लिए इज्तिहाद (भरपूर प्रयास) करते हैं, जिसमें वे क़ुरआन और सुन्नत के सामान्य सिद्धांतों से मार्गदर्शन लेकर तथा शरीयत के उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए, कि़यास और इस्तिंबात के माध्यम से इनके शरई हुक्म तक पहुँचते हैं।

इस प्रकार, चाहे मामला कुछ भी हो, ये विद्वान शरीयत के मौलिक सिद्धांतों के आधार पर उसका शरई हुक्म निकाल  सकते हैं। क्योंकि कुछ चीजें मूल रूप से या तो अनुमत होती हैं या वर्जित, जब तक कि इसके विपरीत कोई प्रमाण न हो। इसलिए ऐसा संभव नहीं कि इस्लामी शरीयत में कोई ऐसा मामला हो, जिसका कोई हुक्म न हो।

इस संदर्भ में अधिक जानकारी के लिए शंकी़ती़ की तफ़सीर "अज़वाउल-बयान" में अल्लाह के कथन :  إِنَّ هَذَا الْقُرْآنَ يَهْدِي لِلَّتِي هِيَ أَقْوَمُ "निःसंदेह यह क़ुरआन वह मार्ग दिखाता है, जो सबसे सीधा है।" (अल-इस्रा: 9) की व्याख्या देखें।

निष्कर्ष :

इस्लामी शरीयत लोगों की आवश्यकता के अनुसार उनके सभी मामलों से संबंधित अहकाम प्रदान करती है, क्योंकि यह पूर्ण और संपूर्ण धर्म के लिए अंतिम शरीयत है, जैसा कि अल्लाह तआ़ला ने फ़रमाया :  الْيَوْمَ أَكْمَلْتُ لَكُمْ دِينَكُمْ وَأَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِي وَرَضِيتُ لَكُمُ الْإِسْلَامَ دِينًا "आज मैंने तुम्हारे लिए तुम्हारा धर्म परिपूर्ण कर दिया, तथा तुमपर अपनी नेमत पूरी कर दी और तुम्हारे लिए इस्लाम को धर्म के तौर पर पसंद कर लिया।" (अल-माइदा : 3)

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

संदर्भ

स्रोत

साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर