गुरुवार 18 रमज़ान 1445 - 28 मार्च 2024
हिन्दी

अपने इस्लाम को गुप्त रखा और कुफ्फार के क़ब्रिस्तान में दफन किया गया तो क्या वह काफिर है?

प्रश्न

मान लें कि एक ईसाई ने इस्लाम स्वीकार कर लिया और अपने घर वालों को सूचित नहीं किया, एक अवधि के बाद उसकी मृत्यु हो गयी, किन्तु उस के घर वालों को यह पता नहीं है कि वह मुसलमान हो चुका था, अत: वे लोग उस पर गिरजाघर में नमाज़ पढ़ें गे और ईसाई तरीक़े पर उस को दफन करें गे, मैं जानना चाहता हूँ कि इस का हुक्म क्या है? क्या उसकी मृत्यु इस्लाम पर हुई या कुफ्र पर?

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

हर प्रकार की प्रशंसा और स्तुति अल्लाह के लिए योग्य है।

मेरे सम्मानित भाई ! -सर्वप्रथम- आप को ज्ञात होना चाहिए कि फु’क़हा (धर्म शास्त्रियों) की इस बात पर सर्व सहमति है कि किसी ज़रूरत के बिना, मुसलमान को काफिरों के कब्रिस्तान में, और काफिर को मुसलमानों के क़ब्रिस्तान में दफन करना जाईज़ नहीं है। (देखिये : अल-मौसूआ अल-फिक़हिय्या :21/20, अह्कामुल मक़ाबिर फिश्शरीआ अल-इस्लामिय्या, डा॰ अब्दुल्लाह अस्सुहैबानी, पृ॰ 223-232)

जब मुसलमान की मृत्यु काफिरों के देश मे हो जाये, तो उसके उत्तराधिकारी (सरपरस्त), या मुसलमानों में से जिसे भी इस का ज्ञान हो, उस के ऊपर अनिवार्य है कि वह उसे मुसलमानों के देश में स्थानांतरित करे ताकि उसे वहाँ दफन किया जाये।

इस्लामी देश में उसे स्थानांतरित करना यथाशक्ति होगा, अगर उसे स्थानांतरित करना सम्भव न हो तो उसे काफिरों के देश ही में दफन कर दिया जाये गा, किन्तु उनके क़ब्रिस्तान में नहीं दफनाया जायेगा। (देखिए : अहकामुल मक़ाबिर पृ॰ 225-226)

शैखुल इस्लाम रहिमहुल्लाह फरमाते हैं :"यह (अर्थात् मरने के बाद काफिरों और मुसलमानों के बीच अन्तर करना) जीवन अवस्था में उनके बीच अंतर करने से अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि मुसलमानों के क़ब्रिस्तान में दया होती है, और काफिरों के क़ब्रिस्तान में प्रकोप उतरता है।" (अल-इख्तियारात पृ॰ 94)

दूसरा : जिस परिस्थिति के बारे में आप ने प्रश्न किया है, और यह परिस्थिति काफिर देशों में बहुत सारे ऐसे कमज़ोर मुसलमानों के साथ बार बार उत्पन्न होती रहती है, जो ऐसे देश की ओर हिजरत करने की ताक़त नहीं रखते हैं जहाँ वे अपने इस्लाम का ऐलान कर सकें, और जहाँ वे अपने धर्म और जानों के प्रति सुरक्षा का एहसास कर सकें, तथा वे जिस देश में जीवन यापन कर रहे होते हैं उस में अपने इस्लाम पर प्रत्यक्ष रूप से अमल भी नही कर सकते हैं, या तो उन्हें अपने रिश्तेदारों के अत्याचार का डर होता है, जैसाकि यही स्थिति आप के प्रश्न में है, या इस के अन्य कारण भी हो सकते हैं, तो ऐसे लोग क़ियामत के दिन अपनी नीयतों पर उठाये जायें गे, और आखिरत (परलोक) में उनका हुक्म उनके पास जो ईमान और नेक कार्य है उसी के अनुसार होगा, वह धरती जिस पर उनकी मृत्यु हुई है, या वह क़ब्र जिस में वे दफनाये गये हैं उस का हुक्म नहीं लागू होगा जाबिर बिन अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हुमा कहते हैं : मैं ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को फरमाते हुए सुना है कि: "प्रत्येक बन्दा उसी पर उठाया जाये गा जिस पर उस की मृत्यु हुई है।" (सहीह मुस्लिम हदीस संख्या : 2878)

तथा अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से विर्णत है कि उन्हों ने कहा कि : अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक आदमी के जनाज़ा की नमाज़ पढ़ाई तो आप ने यह दुआ किया :"ऐ अल्लाह! तू हमारे जीवितों, हमारे मृतकों, हमारे छोटों, हमारे बड़ों, हमारे पुरूषों, हमारी महिलाओं, हमारे उपस्थित लोगों और हमारे अनुपस्थित लोगों को क्षमा कर दे, ऐ अल्लाह ! तू हम में से जिस को ज़िन्दा रखे उसे इस्लाम पर ज़िन्दा रख, और हम में से जिसे तू मृत्यु दे उसे ईमान पर मृत्यु दे, ऐ अल्लाह, तू हमें इस के अज्र व सवाब (पुण्य) से वंचित न कर और इस के बाद हमें पथ-भ्रष्ट न कर।"

(अबू दाऊद हदीस संख्याः 3201, अल्बानी ने "सहीह अबू दाऊद" में इसे सहीह कहा है।)

शैख मुहम्मद सालेह अल-उसैमीन -रहिमहुल्लाह- फरमाते हैं:

नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के फरमान "ऐ अल्लाह ! तू हम में से जिस को ज़िन्दा रखे उसे इस्लाम पर ज़िन्दा रख, और हम में से जिसे तू मृत्यु दे उसे ईमान पर मृत्यु दे।"में जीवन के साथ इस्लाम का उल्लेख किया गया है, और वह प्रत्यक्ष रूप से (ज़ाहिर में) अल्लाह के आदेशों के प्रति समर्पण करने का नाम है, और मृत्यु के साथ ईमान का उल्लेख किया गया है, क्योंकि ईमान सर्वश्रेष्ठ है, और उसका स्थान दिल है, और मृत्यु के समय तथा क़ियामत के दिन आधार उसी पर होगा जो कुछ दिल में है।" (शर्ह रियाज़ुस्सालेहीन 2/1200)

तथा शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह से प्रश्न किया गया कि कुछ लोग कहते हैं कि : अल्लाह के कुछ ऐसे फरिश्ते हैं जो मुसलमानों के क़ब्रिस्तान से यहूदियों और ईसाईयों के क़ब्रिस्तान में (मृतकों को) स्थानांतरित करते हैं, और यहूदियों और ईसाईयों के क़ब्रिस्तान से मुसलमानों के क़ब्रिस्तान में स्थानांतरित करते हैं, और उनके कहने का उद्देश्य यह है कि : अल्लाह के ज्ञान में जिस आदमी का अंत बुराई पर हुआ है, जबकि ज़ाहिर में मुसलमान हो कर मरा है, या वह किताबी (अर्थात् यहूदी या ईसाई) था और उसका अंत अच्छाई पर हुआ था और वह अल्लाह के ज्ञान में मुसलमान हो कर मरा है, और ज़ाहिर में काफिर होकर मरा है, तो ये लोग (मरने के बाद) स्थानांतरित किये जाते हैं, तो क्या इस बारे में कोई हदीस आई हुई है? और क्या इस का कोई प्रमाण है? या नहीं है?

आप रहिमहुल्लाह ने इस का उत्तर दिया कि : शरीर (शवों) को क़ब्रों से स्थानांतरित नहीं किया जाता है, लेकिन हम इस बात को जानते हैं कि कुछ ऐसे लोग जो ज़ाहिर में (प्रत्यक्ष रूप से ) मुसलमान होते हैं और दरअसल वह मुनाफिक़ : या तो यहूदी या ईसाई या मुर्तद्द होता है ...तो जो आदमी ऐसा है तो क़ियामत के दिन वह अपने समान लोगों के साथ होगा, जैसाकि अल्लाह तआला का फरमान है : "ज़ालिमों और उनके जोड़ों को इकट्ठा करो।" अर्थात् उनके समान और उनके जैसे लोगों को। ऐसा भी हो सकता है कि कोई मरने वाला जो ज़ाहिर में काफिर था, वह मरने से पहले ईमान ले आया हो, और उसके पास कोई मोमिन आदमी नहीं था, और उस ने वरासत या किसी अन्य कारण से, अपने घर वालों से इस मामले को गुप्त रखा, तो ऐसा आदमी मोमिनों के साथ होगा, अगरचि वह काफिरों के साथ दफनाया गया है।

जहाँ तक फरिश्तों के स्थानांतरित करने के बारे में किसी हदीस के विर्णत होने का प्रश्न है तो मैं ने इसके बारे में कोई हदीस नहीं सुनी है। (अल-फतावा अल-कुबरा 3/27 से मामूली परिवर्तन के साथ)

अल्लाह तआला ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है।

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर