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क़र्ज़ दार का मामूली किराये के बदले गिरवी रखे हुए घर में निवास से लाभान्वित होना

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प्रकाशन की तिथि : 23-02-2010

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प्रश्न

हमारे यहाँ घरों को रेहन में रखने का एक सिस्टम पाया जाता है, और वह इस प्राकर है कि : एक निर्धारित राशि उदाहरण के तौर पर एक मिलियन लीरा, या उस से कम या उस से अधिक राशि लेकर घर को रेहन में रखा जाता है, और उस घर में ऋणदाता एक सीमित अवधि उदाहरण के तौर पर एक या दो वर्ष के लिए निवास करता है, और उस अवधि के समाप्त हो जाने के बाद वही राशि बिना वृद्धि या कमी के लौटा दी जाती है और उसका एक बहुत ही कम किराया प्रति वर्ष 100 डालर लिया जाता है, तो क्या हलाल है या हराम ? और क्या यह सूद की शकलों में से एक शकल है ?

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।

यदि आप के प्रश्न का मक़सद यह है कि आप उदाहरण के तौर पर दस लाख लीरा उधार लेती हैं, और अपने घर को रेहन में रख देती है,और क़र्ज़ दात प्रति वर्ष एक बहुत ही कम किराया 100 डालर के बदले उस घर में निवास करता है, तो यह सूद है; क्योंकि यह ऐसे क़र्ज़के अध्याय से है जो लाभ को जन्म देता है, चुनाँचि क़र्ज़ दाता एक मामूली किराया देकर उस घर में आवास का लाभ उठाता है जो उसके समान अन्य घरों के किराये के बराबर नहीं होता है।

यदि उसके समान घरों का किराया मिसाल के तौर पर 200डालर प्रति वर्ष है, लेकिन क़र्ज़ दाता केवल 100डालर देता है, तो इस तरह उस ने तुम्हें क़र्ज़देने की वजह से 100 डालर का लाभ उठाया, और फुक़हा (धर्म शास्त्री) इस बात पर एक मत हैं कि लाभ को जन्म देना वाला हर क़र्ज़सूद है।

इब्ने क़ुदामा रहिमहुल्लाह का कहते हैं : "हर क़र्ज़ जिस में यह शर्त लगाई गयी है कि वह बढ़ा कर देगा तो वह हराम है, इस में किसी का कोई मतभेद नहीं है। इब्नुल मुन्ज़िर कहते हैं : "इस बात पर सर्वसम्मति है कि अगर ऋण दाता उधार लेने वाले पर वृद्धि या उपहार की शर्त लगाये, फिर इसी आधार पर उसे उधार दे, तो उस पर वृद्धि का लेना सूद है। उबै बिन कअब, इब्ने अब्बास और इब्ने मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हुम से वर्णित है कि उन लोगों ने लाभ को जन्म देने वाले क़र्ज़से रोका है।"

"अल-मुगनी" (6/436)से समाप्त हुआ।

इब्ने क़ुदामा रहिमहुल्लाह ने उल्लेख किया है कि क़र्ज दाता के लिए रेहन से लाभ उठाना बिना उस का किराया दिये हुये जाइज़ नहीं है क्योंकि वह ऐसा क़र्ज़हो जायेगा जो लाभ को अर्जित करता है, और यह हराम है।

तथा इमाम अहमद से उद्धृत किया गया है कि उन्हों ने कहा : मैं घरों के क़र्ज़को नापसंद करता हूँ, और वह निरा सूद है। इब्ने क़ुदामा कहते हैं कि : उन का मतलब यह है कि : "जब घर किसी क़र्ज में रेहन रखा हुआ हो जिस से ऋण दाता लाभ उठाता हो।"

लेकिन यदि यह लाभ उठाना किसी चीज़ के बदले में हो, उदाहरण के तौर पर ऋण दाता ने क़र्ज़दार से घर को किराया पर ले लिया और बिना किसी पक्षपात के उसी के समान किराये का भुगतान किया तो ऐसा करना जाइज़ है, क्योंकि उस ने क़र्ज़से लाभ नहीं उठाया है।

और अगर पक्षपात से काम लिया है (अर्थात् जितना किराया उस तरह के घरों का होना चाहिए उस से कम लिया है) तो यह जाइज़ नहीं है।

देखिये : "अल-मुग़नी" (4/250)

इस से ज्ञात होता है कि ऋण दाता से पक्षपात करना जाइज़ नहीं है, बल्कि उस से उसी के समान घरों की तरह किराया लिया जायेगा, अन्यथा दोनों ही सूद में फंस जायेंगे। और सूद हराम है भले ही वह दोनों पक्षों की सहमति से ही क्यों न हो।

तथा इफ्ता की स्थायी समिति के विद्वानों से प्रश्न किया गया कि : मिस्र के कुछ गांवों में कृषि भूमि को रेहन (गिरवी) रखने की परंपरा का चलन पाया जाता है, जिस के अंतर्गत एक आदमी जिसे पैसे की ज़रूरत होती है उस आदमी से जो पैसे का मालिक होता है, पैसे लेता है, और पैसे लेने के बदले में पैसे का मालिक रेहन के तौर पर कृषि भूमि लेता है जो कि क़र्ज़दार की संपत्ति होती है, पैसे का मालिक (ऋण दाता) ज़मीन को ले लेता है और उसके फलों और उत्पादन से लाभ उठाता है, और ज़मीन के मालिक को उस ज़मीन के उत्पादन से कुछ भी नहीं मिलता है, और वह कृषि भूमि निरंतर ऋण दाता के क़ब्ज़े में रहती है यहाँ तक कि क़र्ज़दार पैसे के मालिक को उस के पैसे वापस लौटा दे। तो इस का क्या हुक्म है ?

तो उन्हों ने उत्तर दिया कि:

"जिस ने किसी आदमी को कोई क़र्ज़दिया तो उस के लिए जाइज़ नहीं है कि वह क़र्ज़लेने वाले पर क़र्ज़के बदले में किसी लाभ की शर्त लगाये ; क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से वर्णित है कि आप ने फरमाया : "हर वह क़र्ज़जो लाभ को अर्जित करता है, वह सूद है।" और इस बात पर विद्वानों की सर्वसहमति है, और इसी के अंतर्गत वह स्थिति भी आती है जिसका प्रश्न में उल्लेख किया गया है कि क़र्ज लेने वाला, क़र्ज़देने वाले को ज़मीन रेहन पर देता है, और क़र्ज़दाता उस से लाभ उठाता है यहाँ तक कि ज़मीन का मालिक अपने ऊपर अनिवार्य क़र्ज़का भुगतान कर दे। इसी प्रकार अगर उस का उस के ऊपर क़र्ज़अनिवार्य हो,तो क़र्ज़दाता के लिए क़र्ज़दार को मोहलत देने के बदले में ज़मीन के उत्पादन को लेना और उस से लाभ उठाना जाइज़ नहीं है, इसलिए कि रेहन का उद्देश्य क़र्ज़की प्राप्ति के लिए दस्तावेज़ और प्रमाण का जुटाना है, क़र्ज़के बदले में रेहन का शोषण करना, या क़र्ज़के भुगतान में उपेक्षा करना नहीं है। और तआला ही तौफीक़ प्रदान करने वाला (शक्ति का स्रोत) है, तथा अल्लाह तआला हमारे सन्देष्टा मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम, आपकी संतान और आप के साथियों पर दया और शांति अवतरित करे।" (समाप्त हुआ।)

"फतावा अल्लज्नह अद्दाईमह" (14/177)

चेतावनी:

और यदि आप के कहने का मतलब यह है कि आप उस घर में रहती हैं जो आप की संपत्ति है और आप ने उसे रेहन रख दिया है और आप यह साधारण किराया 100 डॉलर सालाना ऋण दाता को देती हैं, तो यह भी वैध नहीं है, क्योंकि क़र्ज़ देने वाले के लिए अपने क़र्ज़ के बदले में कुछ भी लेना जाइज़ नहीं है चाहे वह मामूली चीज़ ही क्यों न हो,और रेहन तो मात्र उसके हक़ की रक्षा के लिए है,वह उस से कुछ भी लाभ नहीं उठा सकता।

और अल्लाह तआला ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है।

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर