मंगलवार 14 शव्वाल 1445 - 23 अप्रैल 2024
हिन्दी

क्या अर्श (सिंहासन) पर मुस्तवी होने की व्याख्या बैठने से करना सही हैॽ

प्रश्न

क्या मुसलमान के लिए यह कहना जायज़ है कि अल्लाह अर्श (सिंहासन) पर बैठा हैॽ तथा क्या यह कहना जायज़ है कि जब अल्लाह सिंहासन पर बैठा है तो वह ऐसा और ऐसा करता हैॽ कृपया ज्ञात रहे कि जिसने भी ऐसा कहा है, उसका उद्देश्य अल्लाह का उपहास करना नहीं था, लेकिन उसने सिंहासन पर बैठने के शब्द का प्रयोग किया है। क्या उसके लिए यह करना पर्याप्त है कि वह अल्लाह से क्षमा माँगे और फिर से ऐसा न करने का संकल्प करेॽ मैंने उसके बारे में इसलिए प्रश्न किया है; क्योंकि मैं जानता हूँ कि अल्लाह के बारे में अनुचित तरीक़े से बात करना बहुत खतरनाक है, और यह कुछ स्थितियों में आदमी को धर्म से निष्कासित कर सकता है, तो क्या जिसका मैंने उल्लेख किया है इस तरह की स्थितियों के अंतर्गत आता हैॽ

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

सर्व प्रथम :

अल्लाह के संबंध में जो साबित (प्रमाणित) है, वह उसका अर्श (सिंहासन) पर मुस्तवी (स्थिर व स्थापित और बुलंद) होना है, जैसा कि उसकी महिमा और पूर्णता के योग्य है।

अल्लाह की पुस्तक में इसका उल्लेख सात स्थानों पर किया गया है, जिनमें से एक अल्लाह तआला का यह कथन है :

 إنَّ رَبَّكُمُ اللَّهُ الَّذِي خَلَقَ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ فِي سِتَّةِ أَيَّامٍ ثُمَّ اسْتَوَى عَلَى الْعَرْشِ 

الأعراف : 54

“निःसंदेह तुम्हारा पालनहार अल्लाह है, जिसने आकाशों और धरती को छह दिनों में पैदा किया, फिर वह अर्श पर मुस्तवी (बुलंद) हुआ।” (सूरतुल आराफ़ : 54).

‘इस्तिवा’ की प्रसिद्ध व्याख्या यह है कि : वह ऊँचा और बुलंद होना है।

बुख़ारी ने अपनी सहीह में कहा : “अध्याय : (और उसका सिंहासन पानी पर था), (और वह महान सिंहासन का रब है).

अबुल-आलिया ने कहा :  استوى إلى السماء “इस्तवा इला अस्समाए” : अर्थात् ऊँचा हुआ... मुजाहिद ने कहा : इस्तवा का अर्थ है : वह सिंहासन पर बुलंद हुआ।”

अल-बग़वी रहिमहुल्लाह ने कहा :  ثم استوى إلى السماء  "सुम्मा इस्तवा इला अस्समाए" : इब्ने अब्बास तथा पूर्वजों में से अधिकांश व्याख्याकारों ने कहा : यानी वह आकाश की ओर बुलंद हुआ।” तफ़सीर अल-बग़वी (1/78) से उद्धरण समाप्त हुआ। तथा इसे हाफिज़ इब्ने ह़जर ने “फ़त्ह़ुल बारी” (13/417) में वर्णन किया है और उन्होंने कहा : “अबू उबैदा और अल-फ़र्रा तथा अन्य लोगों ने कुछ ऐसा ही कहा है।”

जहाँ तक ‘इस्तिवा’ की व्याख्या ‘बैठने’ के शब्द से करने का संबंध है : तो यह कुछ हदीसों में आया है, जो सही (प्रमाणित) नहीं हैं।

लेकिन कुछ पूर्वजों ने इसे इस्तिवा की व्याख्या के रूप में साबित किया है, जैसा कि इमाम ख़ारिजा बिन मुसअब अज़-ज़बई से वर्णित है। इसे अब्दुल्लाह बिन अहमद ने किताब “अस्सुन्नह” (1/105) में रिवायत किया है।

तथा हाफ़िज़ अद-दारक़ुत्नी ने अपनी कविता की कुछ प्रसिद्ध पंक्तियों में ‘बैठने’ का उल्लेख किया है।

यदि मान लिया जाए कि यह शब्द साबित है, तो अल्लाह से ‘तश्बीह’ का खंडन (उसके अपनी किसी सृष्टि के सदृश होने का इनकार) करने का विश्वास रखना अनिवार्य है।

शैखुल इस्लाम रहिमहुल्लाह कहते हैं : “जब यह बात अच्छी तरह से ज्ञात है कि फ़रिशतों और मनुष्यों की आत्माओं का वर्णन जिस तरह की हरकत (गति, चाल), चढ़ने, उतरने आदि के साथ किया जाता है, तो यह मनुष्यों और अन्य प्राणियों के शरीर की हरकत (गति, चाल) की तरह नहीं है, जो हम इस दुनिया में आँखों से देखते हैं और यह कि उनके बारे में [यानी फ़रिश्तों या मनुष्यों की आत्माओं के संबंध में] वह संभव है जो मनुष्यों के शरीर में संभव नहीं है;  इसलिए इनमें से जो कुछ अल्लाह के लिए वर्णन किया गया है, वह संभव होने के अधिक योग्य है और शरीर के उतरने की सादृश्यता से बहुत दूर है।

बल्कि, उसका उतरना फ़रिश्तों और मनुष्यों की आत्माओं के उतरने के समान नहीं है। भले ही वह उनके शरीर के उतरने के क़रीब हो।

जब मृत व्यक्ति का अपनी कब्र में बैठना, शरीर के बैठने जैसा नहीं है, तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से वर्णित हदीसों में अल्लाह के बारे में “बैठने” का जो शब्द आया है, जैसे कि जा’फ़र बिन अबी तालिब रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस और उमर बिन अल-ख़त्ताब रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस, तथा अन्य हदीसों में : वह इस बात के अधिक योग्य है कि बंदों के शरीर की विशेषताओं के समान नहीं है।” “मजमूउल-फतावा” (5/527) से उद्धरण समाप्त हुआ।

हालाँकि इस शब्द के बारे में सबसे उचित बात उसके उपयोग से बचना है, क्योंकि इसका उल्लेख क़ुरआन और प्रामाणिक सुन्नत में, तथा सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम के शब्दों में नहीं हुआ है।

शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह ने कहा : “जहाँ तक अल्लाह के अपने अर्श पर इस्तिवा की व्याख्या उसके ‘अपने अर्श (सिंहासन) पर स्थिर होने’ से करने का संबंध है, तो सलफ़ (पूर्वजों) से यही सर्वज्ञात (प्रसिद्ध) है, जिसे इब्नुल-क़य्यिम ने ‘अन्-नूनिय्यह’ में और अन्य लोगों ने उल्लेख किया है।

जहाँ तक ‘बैठने’ के शब्द का संबंध है : तो कुछ ने इसका उल्लेख किया है, लेकिन मेरे दिल में इसके बारे में कुछ खटक है। और अल्लाह तआला ही बेहतर जानता है।” मजमूओ फ़तावा इब्ने उसैमीन (1/196) से उद्धरण समाप्त हुआ।

शैख अल-बर्राक रहिमहुल्लाह ने कहा : कुछ रिवायतों में अल्लाह की ओर बैठने की निस्बत का वर्णन हुआ है और यह कि वह महिमावान अपनी कुर्सी पर जिस तरह से चाहता है बैठता है। कभी-कभी कुछ इमामों (प्रमुख विद्वानों) ने भी इस शब्द का प्रयोग किया है।

शैख (अर्थात शैख़ुल इस्लाम इब्ने तैमिय्यह) के शब्दों का संदर्भ यह आभास देता है कि इस्तिवा में बैठना शामिल है।

लेकिन सर्वोचित इस शब्द का प्रयोग करने से बचना है, सिवाय इसके कि यह सिद्ध हो जाए।”

“शर्ह अर-रिसालाह अत-तदमुरिय्यह” (पृष्ठ १८८) से उद्धरण समाप्त हुआ।

उपर्युक्त बातों के आधार पर :

हम “बैठने” के शब्द के द्वारा इस्तिवा की व्याख्या करना उचित नहीं समझते हैं। बल्कि यह कहना चाहिए कि : वह अर्श (सिंहासन) पर मुस्तवी है और इस्तिवा की व्याख्या ‘ऊँचा और बुलंद होना’ करना चाहिए।

अगर कोई व्यक्ति उस शब्द का इस्तेमाल करता है, जो कि कुछ पूर्वजों से वर्णित है, तो उसकी निंदा नहीं की जानी चाहिए।

लेकिन उससे कहा जाएगा : यह आम लोगों के सामने कहना उचित नहीं है, क्योंकि इससे वे भ्रमित हो सकते हैं, और हो सकता है कि यह उन्हें अल्लाह को उसकी सृष्टि के सादृश्य बनाने के लिए प्रेरित कर दे।

इससे यह स्पष्ट हो गया कि यह अभिव्यक्ति कुफ़्र नहीं है, बल्कि यह इस्तिवा की एक व्याख्या है, जिसके बारे में मतभेद है।

तथा हमने उल्लेख किया कि सबसे स्पष्ट बात : इस शब्द का प्रयोग करने से बचना है।

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।  

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर