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क़ज़ा के रोज़े में मूल रोज़े की तरह रात ही के समय से नीयत करना आवश्यक है।

19-03-2021

प्रश्न 192428

मुझे इस बात का ज्ञान नहीं था कि जो महिला रमज़ान के महीने में मासिक धर्म की अवस्था में थी, उसे नफ्ल रोज़ा रखने से पहले छूटे हुए रोज़ों की क़ज़ा करने में जल्दी करना चाहिए। इसलिए मैंने रमज़ान के बाद कुछ नफ्ल रोज़े रख लिए। तो क्या मेरे लिए अब नीयत को बदलना और रखे हुए रोज़ों को क़ज़ा का रोज़ा समझना जायज़ हैॽ और क्या दिन के दौरान नीयत को बदलना जायज़ हैॽ अर्थात यदि मैंने नफ़्ल रोज़ा रखना शुरू कर दिया, तो क्या मेरे लिए दिन के दोरान उस नीयत को बदलकर रमज़ान के रोज़ों की क़ज़ा की नीयत करना जायज़ हैॽ

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

सर्व प्रथम :

जिस स्वैच्छिक (नफ़्ल) रोज़े को रखा जा चुका है उसकी नीयत को बदल कर रमज़ान के उन दिनों की कज़ा की नीयत करना जिन दिनों का रोज़ा आपने तोड़ दिया था, सही (मान्य) नहीं है; क्योंकि क़ज़ा के रोज़े में रात ही से नीयत का होना आवश्यक है, इसलिए कि क़ज़ा का भी वही हुक्म है जो मूल (अदा के) रोज़े का है। और पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का कथन है : "जो कोई भी फज़्र से पहले रोज़े की नीयत न करे तो उसका रोज़ा (मान्य) नहीं है।'' इसे तिर्मिज़ा (हदीस संख्या : 370) ने रिवायत किया है और अल्बानी ने ''सहीह तिर्मिज़ी'' में सहीह क़रार दिया है, और तिर्मिज़ी ने इसके बाद फरमाया : विद्वानों के निकट इसका मतलब यह है कि उस व्यक्ति का रोज़ा नहीं है जिसने फज्र उदय होने से पहले रोज़े की नीयत नहीं की, चाहे रमज़ान में हो, या रमज़ान के छूटे हुए रोज़े की क़ज़ा में, या नज़्र के रोज़े में; यदि उसने रात ही से उसकी नीयत नहीं की तो वह रोज़ा उसके लिए पर्याप्त नहीं होगा। रही बात स्वैच्छिक रोज़े की, तो उसके लिए सुबह होने के बाद रोज़े की नीयत करना अनुमेय है। यही इमाम शाफ़ेई, अहमद और इसहाक़ का कथन है।'' उद्धरण समाप्त हुआ।

इमाम नववी रहिमहुल्लाह ने कहा :

''रमजान का रोज़ा, या कज़ा या कफ्फारा का रोज़ा, या हज्ज के फिद्या का रोज़ा, या इनके अलावा अन्य अनिवार्य रोज़ा दिन के दौरान की नीयत के द्वारा सही नहीं होगा, इस मामले में कोई मतभेद नहीं है।'' “अल-मजमूअ (6/289)” से उद्धरण समाप्त हुआ।

तथा देखें : इब्ने कुदामा की “अल-मुग्नी” (3/26).

ऐसा इसलिए है क्योंकि इबादत से फारिग होने के बाद नीयत को बदलने से उसपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

अल्लामा  सुयूती रहिमहुल्लाह ने ''अल-अश्बाह वन-नज़ाइर'' (पृष्ठः 37) में फरमाया :

''यदि कोई व्यक्ति नमाज़ से फारिग होने के बाद उसे समाप्त करने की नीयत करे, तो विद्वानों की सर्व सहमति के अनुसार वह नमाज़ बातिल (अमान्य) नहीं होगी। यही बात अन्य सभी इबादतों पर भी लागू होती है।'' उद्धरण समाप्त हुआ।

अतः जो रोज़ा स्वैच्छिक (नफ़्ल) रोज़े की नीयत से रखा गया है, वह कज़ा के रोज़े की तरफ़ से पर्याप्त नहीं होगा।

और इसलिए कि जब उसने स्वैच्छिक रूप से रोज़ा रखना शुरू किया, फिर उसे लगा कि वह दिन के दौरान उसे क़ज़ा के रोज़े में बदल दे, तो इस तरह उसने अनिवार्य रोज़े के दिन का कुछ हिस्सा स्वैच्छिक रोज़े के रूप में रखा; इसलिए वह एक अनिवार्य रोज़े के लिए पर्याप्त नहीं होगा; क्योंकि कार्यों का आधार नीयतों पर है, और उसने दिन का कुछ हिस्सा स्वैच्छिक रोज़े की नीयत से रखा है।

और क्योंकि यह नीयत को सामान्य रोज़े से एक विशिष्ट रोज़े में परिवर्तित करना है, और यह सही (मान्य) नहीं है।

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

अधिक जानकारी के लिए प्रश्न संख्याः (39689) का उत्तर देखें।

लेकिन हम आपको इस बात से सचेत करना चाहते हैं कि उस व्यक्ति के लिए नफ्ल रोज़ा रखना निषिद्ध नहीं है, जिसके ऊपर रमज़ान के रोज़े की क़ज़ा बाक़ी है, जैसा कि प्रश्न में उल्लेख किया गया है। बल्कि सही राय (राजेह कथन) यह है किः यदि कोई व्यक्ति नफ्ल रोज़ा रखना चाहे और उसके ऊपर अनिवार्य रोज़ाः रमज़ान की क़जा वग़ैरह बाक़ी हैः तो उसका रोज़ा सही (मान्य) है, जबकि उसके सामने इतना समय बाक़ी है जो अगला रमजान शुरू होने से पहले, उसके ऊपर अनिवार्य रोज़े की क़ज़ा करने के लिए पर्याप्त है। लेकिन जिस चीज़ से रोका जाता है, वह रमज़ान के बाक़ी बचे रोज़ों की कज़ा करने से पहले शव्वाल के छह दिनों का रोज़ा रखना है। हालाँकि इस विषय में – भी – विद्वानों का मतभेद है।

तथा प्रश्न संख्या (41901) व प्रश्न संख्याः (39328) का उत्तर भी देखें।

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

रोज़े के मसाईल
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